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शाम होते ही किसी की देह-सी
महक जाती चाँदनी।
आईने में एक धुँधले चित्र-सी उभर आती है,
बारजे-छत पर अकेले जहाँ होता हूँ बिखर जाती है,
उँगलियों से जब कहीं महसूस करना चाहता हूँ
न जाने क्यों बहक जाती चाँदनी।
महक जाती चाँदनी।
नदी, वन, पगडंडियों पर दौड़ती है
हवा बन कर कँपाती जल
एक गहरे धुंध में डूबे हुए दिन की तरह
मुझे छलती रही हर पल कँटीली टहनियों के बीच उलझे फूल-सी
मन में कसमसाती चाँदनी।
महक जाती चाँदनी।
शाम होते ही किसी की देह-सी।
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